कुछ देर के लिए फ़ेर दूँ ये रिश्तों के किवाड़
पीठ पर से उतारकर रख दु ज़िम्मेदारी के पहाड़
और लेट जाऊं इस रेत पर सुकून की चादर में
कि ख़ुद संग वक़्त बिताये एक अरसा बीत गया,
बंद करदूँ ये नाटक बाहर शेर बनके रहने का
और घोट दूँ खुद अपने हाथों से ये नक़ली दहाड़
बना लूँ साया अपना अपने डरों को ही
कि ख़ुद संग वक़्त बिताये एक अरसा बीत गया,
ये जो खिड़की बाहर गली का शोर सुनाती है
मेरे मोहल्ले को मेरे घर का रास्ता दिखलाती है
कुछ देर इसपर भी पर्दा ढक दूँ ज़रा
कि ख़ुद संग वक़्त बिताये एक अरसा बीत गया,

इस फ़ोन औऱ लैपटॉप को छुपादूँ जानबूझकर
फ़िर ख़ुद से ही झूठ केहदू की खो गए कहीं
और रख लूँ फ़िर से आज सीने पर किताब
कि ख़ुद संग वक़्त बिताये एक अरसा बीत गया
आज फ़िर ढूंढ निकालूँ उस बचपन की शैतानियों वाले संदूक को
और उसमें से निकालूँ वो खेल अजब पुराने
धूल हटाऊँ उस कोने में पड़े बल्ले पर से
और थकान को गेंद बना के उडादूँ
बाहर खींच निकालूँ अलमारी से झांकते उस बचपन वाले मैं को
औऱ हाथ पकड़ के बैठा लूँ सामने अपने
कि ख़ुद संग वक़्त बिताये एक अरसा बीत गया
यह भी पढ़े : दोस्ती एक शब्द नहीं बल्कि पूरी दुनिया है….