एक लड़का और एक लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते – यह बहस बहुत लंबी है। यदि इस पर शोध किया जाए तो शायद ही निष्कर्ष तक पहुंच सकेंगे। कारण कई हो सकते हैं और ये सारे कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी सोच पर आधारित होते हैं। स्कूल में लड़के और लड़की की दोस्ती की बात हो या दफ़्तर में महिला और पुरूष सहकर्मी की दोस्ती, हम सतर्क हो जाते हैं। सबकी नज़रें इस दोस्ती पर टिकी होती हैं। क्या ये वाक़ई दोस्ती है या कुछ और ? आख़िर क्यों इतना असहज और असुरक्षित महसूस करते हैं ऐसी दोस्ती पर ?
अपनी दोस्ती को लंबे समय तक बरकरार रखने के लिए जाने ये जरुरी बातें
आकर्षण की सहजता पर प्रश्नचिन्ह
यह दोस्ती यूं तो मानवीय संबंध पर आधारित है और जिसमें भावनात्मक आकर्षण ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन दुनिया की नज़र इसे शारीरिक आकर्षण के नज़रिए से ही देखती है। सच के आईने से देखें तो ज्ञात होता है कि महिलाएं बचपन से ही संरक्षकों की आदी होती हैं। पिता हो या भाई, यह मानसिकता बन जाती है कि इनके बिना वो सुरक्षित नहीं हैं। स्कूल कॉलेज में ऐसी दोस्ती में कुछ आकर्षण स्वाभाविक है। लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि इसकी वजह शारीरिक ही हो। जिससे हम बातचीत करने में सहजता महसूस करें या कोई ऐसा हो, जिससे किसी भी विषय पर बात कर सकें तो वही हमारा दोस्त है। इसी सहजता के कारण लड़की किसी ऐसे दोस्त को अपना संरक्षक और शुभचिंतक मानने लगती है।
लड़का भी इसी सहजता के कारण संरक्षक या हितैषी बन जाता है। लेकिन परिवार और समाज की नज़रें ऐसी दोस्ती पर प्रश्न लगाती हैं। यहां तक कि बचपन के दोस्त लड़का लड़की को चेतावनी मिलने लगती है कि अब बड़े हो गए हो दूरियां ज़रूरी है। दफ़्तर में भी महिला-पुरूष सहकर्मी के बीच किसी सहजता को शंकित नज़रों से देखा जाता है। आख़िर क्यों हम इतना डरते हैं ? और यह डर ही एक स्वस्थ दोस्ती के दरवाज़े बंद कर देता है। शारीरिक आकर्षण एक बहुत ही स्वाभाविक और सहज भावना है। मर्यादा के दायरे लांघने पर कोई भी रिश्ता असंयमित हो जाता है और जो प्रदूषित भी होता है। स्त्री-पुरूष की दोस्ती भी कई बार इससे अछूती नहीं रहती है, लेकिन सिर्फ़ इसी वजह से ऐसी दोस्ती को ग़लत नज़रों से देखना भी लाज़िमी नहीं है।
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए क्यों जरुरी है शारीरिक संबंध
शंकाओं की गुंजाइश ना हो
यह सब कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि लड़का-लड़की की दोस्ती को सदैव प्रोत्साहित करना चाहिए । लेकिन उनकी मर्यादित और निश्चल दोस्ती की इज़्ज़त ज़रूर करना चाहिए । यदि माँ-बाप को अपने बच्चों की ऐसी दोस्ती से कोई शंका होती है तो बातचीत से उसे दूर करें, क्योंकि यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो अपने ही बच्चों के प्रति विश्वास खो देंगे। बच्चे भी एक स्वस्थ दोस्ती के दरवाज़े सदा के लिये बंद कर देंगे।
यही बात दफ़्तर के सहकर्मियों के लिए भी सार्थक है। बदलते समय का सबसे बड़ा परिवर्तन यही है कि कन्या पाठशाला से निकल कर आज लड़कियां, लड़कों के साथ स्कूल-कॉलेज के में दिख रही हैं और कार्यालयों में महिला कर्मचारियों की गिनती बढ़ रही है। ऐसे माहौल में ऐसी दोस्ती का फलना-फूलना सहज स्वाभाविक है । लेकिन इससे डरिए नहीं, न ही शंकित रहें, क्योंकि ऐसी दोस्ती में अपनेपन की भावना ही सर्वोपरि होती है।
यदि मानवीय संबंधों की ख़ूबसूरती उसके मर्यादित रहने में है तो ऐसे संबंधों की इज़्ज़त भी उसे और खूबसूरत बनाती है और दोस्ती का रिश्ता तो हर रिश्ते से खूबसूरत है। एक लड़के-लड़की के बीच स्वस्थ दोस्ती एक बहुत ही खूबसूरत रिश्ता है। हर किसी को ज़िंदगी में किसी “एक” की ज़रूरत होती है, जो उसका हमदर्द और हमराज़ बने। वो “एक” जिससे बातचीत में कोई संकोच न हो, न ही कोई दीवार हो उनके बीच, ऐसी बातचीत कई बार हमारी उदासी की दवा बनती है तो ख़ुशी के पलों की मददगार भी।
तो फिर माँ-बाप अपने बच्चों की और पति-पत्नी, एक-दूसरे की ऐसी स्वस्थ दोस्ती से परहेज़ न करें, बल्कि उसे अपनेपन से संवारें। हर रिश्ते की मज़बूती और ख़ूबसूरती पवित्र मानवीय भावनाओं की छांव में फलने-फूलने से ही है।